शोषित समाज ( -by Er. Ritesh kumar)


शोषित समाज

1931-32 में 'गोलमेज सम्मेलन-' के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने समाज को सांप्रदायिक तौर पर बांटा तो, उन्होंने उस वक़्त की अछूत जातियों के लिए अलग से एक अनुसूची बनाई, जिसमें इन जातियों का नाम डाला गया। इन्हें प्रशासनिक सुविधा के लिए अनुसूचित जातियां कहा गया।

आजादी के बाद के भारतीय संविधान में भी इस औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखा गया। इसके लिए संवैधानिक आदेश, 1950 जारी किया गया, जिसमें भारत के 29 राज्यों की 1108 जातियों के नाम शामिल किए गए थे लेकिन आज 6000 जातियों में बंटा इस समाज का एक वर्ग भी अपनी जातियों को भुला नहीं पाया। सवर्णों से उम्मीद रखने वाला यही अनुसूचित समाज खुद में ही रोटी बेटी का रिश्ता तो दूर अभी मानवीय भाईचारा भी बनाने में कामयाब नहीं हुआ है।

आज की तारीख में एक तरफ जातिवादी और घृणित, संकुचित बहुजन या दलित से समाज के कुलीन और समृद्ध लोग दूरियां बना रहे हैं और दूसरी तरफ इसी शब्द से वही तिरस्कृत और वंचित समाज संगठित भी हो रहा है। जिससे बहुजन या दलित शब्द को मजबूती मिल रही है।

बाबा साहेब की उस पंक्ति को याद रखें जहां उन्होंने कहा था कि यदि हम लोग इस जहरीली जाति व्यवस्था को समाप्त करने में कामयाब ना हुए तो अपनी जातीय पहचान को इतना मजबूत कर देना और इतना गर्व करना की उसी जहरीले समाज के लिए ये सवाल बने। आज यही हो रहा है, जाति और जाति के संस्कारों पर कहीं कोई दो शब्द सुनने को नहीं मिलते हैं, और हम अपनी पहचान छुपाकर उनकी व्यवस्था का अप्रत्यक्ष समर्थन कर रहे हैं। लोग जो बड़ी-बड़ी बातें धर्म और देश के प्रति करते हैं वो केवल खोखला भातृत्व है।

ब्रह्मा के शूद्र, मनु के अछूत, गांधी के हरिजन से कहीं अधिक पवित्र और सक्षम है यह दलित।

दरख़्त ए नीम हूं मेरे नाम से घबराहट तो होगी,
छांव ठंडी ही दूंगा बेशक पत्तों में कड़वाहट तो होगी।

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